Wednesday 17 January 2018

आज फिर

आज फिर एक उलझन, अपना निशां बना रही है
फिर मेरी चाहतो पर, ज़ुल्म ढा रही है
चाहत है, पंख खोलकर, कुछ उड़ने की पर
न जाने क्यूँ  एक डोर, उनको बांधे जा रही हैं

क्या छोड़ू वह सब, जो दर्द दे रहा है

या भूलू हर चाह जो मुझको बुला रही है
या जानू वो आज, जो सच है
है मिट्टी फिर चिकनी और चल डगमगा रही है

कान की बाली, कहीं खो रही अपनी चमक

पाव की पायल है, बेताल बजी जा रही है
एक नज़र है, जो झुककर उठती नहीं
और दिल की ज़ुबां है कि, चली जा रही है

वो सब जो, कही जा रहीं है ऐसे

बात तो है पर बेमानी होती जा रही है
यूँ तो, सच का हर कदम, रुक रहा है
और ज़िंदगी है, जो बेसुध ,चली जा रही है  

तो भी क्या?

यूँ कर रहा बादल इशारा, मैं अभी बरसूँ यहीं 
मैं तो सोचती रही, छलका तो, अब मुझको क्या?

था रौशनी का इल्म , हवाएँ यूँ चलती हुई 
कर रही उत्पाद सृष्टि, या दिखावा सिर्फ क्या?

सोच कुछ विचलित हुई, नहीं हैं जैसा दिख रहा 
प्रत्यक्ष जो भी हैं मेरे, प्रतीत कर रहा है क्या?

यूँ चलती इन हवाओ से, आलिंगन है हो रहा
सब शांत जो भी लग रहा, कह रहा वो मुजह्से क्या?

चाँद की चांदनी में नूर, हैं अब भी वही 
रात हो अमावस की, तो भी क्या? 

Monday 15 January 2018

हे ईश्वर!

हे ईश्वर!
तू क्यों ऐसा करता है जग में?
कहीं ज़िन्दगी गम  में धूमिल,
कही सुख से न्यारी है

किसी के घर तो चिता जली,
कहीं  पहली लोहरी की लाली है
किसी के घर दुःख दीप जला,
कहीं  दीपो की क्यारी है

हे ईश्वर!
तू क्यों ऐसा करता है जग में?
कहीं ज़िन्दगी गम  में धूमिल,
कही सुख से न्यारी है
    

मुझे तू याद हैं ...

आज हिंदी दिवस पर यह कविता मैंने अपने पिता जी की याद में लिखी है जिन्हे मैंने इसी वर्ष अप्रैल मैं खोया है।  हालाँकि उनका देहांत ४ मई को हुआ प...