यूँ कर रहा बादल इशारा, मैं अभी बरसूँ यहीं
मैं तो सोचती रही, छलका तो, अब मुझको क्या?
था रौशनी का इल्म , हवाएँ यूँ चलती हुई
कर रही उत्पाद सृष्टि, या दिखावा सिर्फ क्या?
सोच कुछ विचलित हुई, नहीं हैं जैसा दिख रहा
प्रत्यक्ष जो भी हैं मेरे, प्रतीत कर रहा है क्या?
यूँ चलती इन हवाओ से, आलिंगन है हो रहा
सब शांत जो भी लग रहा, कह रहा वो मुजह्से क्या?
चाँद की चांदनी में नूर, हैं अब भी वही
रात हो अमावस की, तो भी क्या?
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